निहारते रहे तुझे और शाम गुज़र गयी
कहीं आरज़ू में तेरी येः ज़िन्दगी न निकल जाए ।।
जो आशियाने बनाएं हैं ख़्वाबों के हमने
हक़ीक़त की अंधी में रेगिस्तान न बन जाए ।।
हैरां है अपनी तख़लीक़ पे कुछ इसकदर
ख़ुदा भी कहीं काफिर न बन जाए ।।
ज़माना फ़िराक़ में लिए हाथ में पत्थर
हम सहमे ख़ड़े,
मंज़िल से पहले आशिक़ का जनाज़ा न निकल जाए ।।
Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2014.
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