Tuesday, September 30, 2014

सौदागर



रोज़ देखता हूं तुझे आते जाते

साइकल पे अपनी गठरी टांगे

फटी पुरानी चीज़ें लेकर

नया कुछ कुछ देता है

शहर शहर, गाओं गाओं यूं ही घूमता है

बड़ा सौदागर लगता है मुझको

बड़ा सौदागर ही होगा।


एक बात तो बता यार

क्या कोई दुकान है

जहां ज़िन्दगी बदली जाती है ?


होगा तो मुझे बताना

फटी पुरानी हो चुकी है ज़िन्दगी मेरी

हो सके तो अपनी ज़िन्दगी बदल,

कोई नयी चीज़ लैलूंगा।।



Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2014. 

नादान




जैसे कोई दस्तक दे रहा है

कुछ इसकदर गूंज रहे हैं सन्नाटे

संग मेरे आज की रात भी तन्हाई की दोस्ती है।।


सोचा चांद को  लेलूं

पर वो सितारों से मशरूफ है

सोचा कोई किताब पढ़लूं 

पर हर सफ़्हा आज हम से बेऱूख है ।।


नींद कहीं गुमशुदा है,

दिल कहीं खामोश है

एक मैं हूं और मेरा खाली सा माकन

दोनों फिर तनहा हैं,

दोनों फिर अकेले हैं ।।


दीवारें भी बातें नहीं करती

उनकी भी तबियत कुछ बदगुमान है ।।


आओगे एक दिन मिलने मुझसे

यकीन में है मेरा दिल

क्या करें,

येः कल भी नादान था,

येः आज भी नादान है ।।


Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2014.

डरा हुआ सा दिल



ज़माने का डर था

अम्मा, बाबा का डर था

इतना डरा हुआ सा तेरा दिल

प्यार कैसे कर सकता था

हिम्मत से एक बार हाँ केह्देति

मंज़िल सामने थी,

किनारा मिल सकता था

पर तूने तो किसी और कश्ती में

दरिया पार कर लिया

हम रेहगये तलातुम में  सोचते

कुछ येः भी हो सकता था

कुछ यूं भी हो सकता था !!


येः नया शहर



धीरे से कदम रखना मंज़िल पर

ज़रा आहिस्ता से चलना

बड़े ही कच्चे माकन हैं इस शहर के

कहीं चाप सुनकर कोई घरौंदा न टूट जाए ।।


संभलके छानकर हर बात कहना

कहीं बातों से कोई दिल न टूट जाए  ।।


हिसाब रखते हैं मुलाकातों का

कहीं मुलाकत में ही सारी कमाई न निकल जाए  ।।


बड़े ही नाज़ुक होते हैं मरस्सिम के धागे

गिरह खोलने में कोई धागा न टूट जाए  ।।


मैंने तो खुला छोड़ा है अपनी तिजोरी को

वो डर रहे हैं कहीं यादें न चोरी हो जाए  ।।


हाथ मिलाया तो शहर से निकाले गए

उन्हें लगा होगा,

ज़रुरत की भीड़ कहीं कोई दोस्त न बन जाए  ।।


चेहरे हैं चरों तरफ, बस चेहरे हैं

हम ढूंढ़ते इन चेहरों में कहीं कोई इंसान मिल जाए  ।।



Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2014.

दिल की बातें



सोचते थे दिल की बातें बस दिल से होती है

नामालूम था यहाँ बस लिबास की कीमत होती है ।।


तौलते हैं आरज़ूओं को दौलत की तराज़ू में

इनके लिए तो बस यही  हासिल होती है  ।।


माकन देखते हैं रहनेवाले को नहीं

रिश्ते भी यहाँ दीवारों सी होती है  ।।


बचालेता हूँ खुद को ओढ़ कर हिजाब

रोज़ मैं होता हूँ और रूबरू मौत होती है ।।


ग़र जानलेता निज़ाम, न आता दुनियां में

ज़िंदगी यहां तो बड़ी ख़ुदग़र्ज़ होती है ।।


क्यों बेच रहा है खुद को बाज़ार में खड़ा "आशित "

क्या ज़माने में कभी इंसान की कीमत होती है ।।


Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2014.

मंज़िल-ऐ-इश्क़



निहारते रहे तुझे और शाम गुज़र गयी 

कहीं आरज़ू में तेरी येः ज़िन्दगी न निकल जाए ।।


जो आशियाने बनाएं हैं ख़्वाबों के हमने 

हक़ीक़त की अंधी में रेगिस्तान न बन जाए ।।


हैरां है अपनी तख़लीक़ पे कुछ इसकदर 

ख़ुदा भी कहीं काफिर न बन जाए ।।


ज़माना फ़िराक़ में लिए हाथ में पत्थर 

हम सहमे ख़ड़े,

मंज़िल से पहले आशिक़ का जनाज़ा न निकल जाए ।। 


Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2014.


मैं क्या करूं



तारीफ करूं  तो कहता है झूठी करते हो

न करूं तो क़यामत हो

मैं क्या करूं ?

नए किताब के पहले पन्ने की तरह

रोज़ नया लगता है मेरा यार

मैं क्या करूं ?


ओस की चादर में तब्बस्सुम, ऐसी उसकी हंसी

उफ़ुक़ से निकलते चांद  सी उसकी सूरत

मैं क्या करूं ?

पहली बारिश में भीगी मिट्टी

सोंधी सी खुशबू उसकी याद दिलाए

मैं क्या करूं ?


बातें ऐसी की तराना बन जाए

चाल ऐसी की तरन्नुम शर्माजाए

मैं क्या करूं ?

मैं  गुनगुनाऊँ तुझे

या लिखदूं तुझपे कोई ग़ज़ल

मैं क्या करूं ?


ज़माना कहता बनजाओगे मजनू,

जूनून-ऐ-उन्स में

कुछ तो  करो

मैं कहता

मेरा यार है ही इतना दिलकश

मैं क्या करूं ?


Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2014.

इबादत-ऐ-यार



बादल हैं के बरसते नहीं

हवा खुसबू बिखेरती नहीं

कोई कलि कहीं खिलती नहीं

चिड़िया गीत गाती नहीं

इंतज़ार में हैं तेरी मुस्कराहट का

जिसके बिना ज़माने में बाहर आती नहीं !!


ग़ज़लें लिख लिख श्याही ख़त्म हो जाए

मिसरे पढ़ पढ़ अल्फ़ाज़ सारे

पर तेरा जिक्र ही काफी है

और यह शाम कभी फिर ढलती नहीं !!


इबादत-ऐ-यार है, महफ़िल-ऐ-ज़िन्दगी में

और क्या है ?

कब्र में हम पड़े हैं

और उनकी आरज़ू में जान है की जाती नहीं !!


Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2014
कोई कहदो जाके उनसे

ज़रा संभल कर अदाएं दिखाएं

वो पलकें उठतीं हैं वहां

और यहां क़त्ल-ऐ-आम हो जाता है !!

तारीफ़ उसकी 


कहा उसने की तारीफ करो मेरी कुछ इसकदर

शमा भी शर्माजाए अपनी अदाओं पर

मैंने कहा क्या करूं  मैं तारीफ तेरी

तेरे मुज्जस्सिम के सामने तो ख़ुदा भी लाज़वाब हो गया !!


शेहेर में मरीज़-ऐ -इश्क़ बढ़ गए

मैखानो में हम्प्याले ,

सूरत-ऐ-यार ज़रा जो बेनक़ाब हो गया !!


न बैद , न हाकिम , न दवा , न दुआ

कुछ और काम आया

 बस तुझसे नज़रें मिलीं और दिल लाइलाज हो गया !!


Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2014.

Monday, September 29, 2014

कभी फुर्सत मिले तो,

रात को छत पे हो आना 

बड़ा गुमान है चांद को ,

अपनी ख़ूबसूरती पे 

बड़ा इंतज़ार है हमें ,

उसका गुरूर टूटने का !!
तू आँखों से मत छू मेरे दिल के फ़साने को 


कहीं कोई किस्सा तेरी आँखों में आंसूं न देजाए !!
यादों की मजारें 


कोरे कागज़ सा हो चूका हूं 

एहसास नहीं उठते दिल में 

कुछ कहना चाहूं  भी तो ,

अल्फ़ाज़ कतराते हैं मुझसे 

कभी गुनगुनाता था तन्हाई में जिन्हें 

याद तो आते हैं मगर 

कैद नहीं कर पाता  श्याही में उन्हें 

बस बैठा ताकता रहता हूं 

मेज़ पर पड़े सादे कागज़ को 

कोई पूछे तो कह्देता हूं 

नज़्म जो हुआ करते थे कभी 

आज बस यादों की मजारें हैं !!


Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2013

यह तेरी हुकूमत



क्यों छोड़चाला तू बस्ती को

क्यों मुंह मोड़ लिया हक़ीक़त से

सुनले के दर्द सा उठता है

तू कहता है सब ठीक है मगर

येः धुआं फिर क्यों उठता है !!


वो बीज जो तूने बोए थे

वो फसलें थी सब नफरत की

आ देख के उनकी लपटों से

खेत येः बंजर बनता है

तू कहता है सब ठीक है मगर

येः धुआं फिर क्यों उठता है !!


कभी किसीका घर तोड़ कर 

क्या राम वहां पर रहता है 

तूने बांटे इंसानो को 

फिर मस्जिद का नाम क्यों लेता है 

तू कहता है सब ठीक है मगर

येः धुआं फिर क्यों उठता है !!


मेरी रोटियां बेच कर 

महल अपने बनवाता है 

सपनो से भी कतराता हूँ 

सपना भी महंगा होता है 

तू कहता है सब ठीक है मगर

येः धुआं फिर क्यों उठता है !!


क्या आसमान फट पड़ा था 

जब मैंने दिल की कही थी 

क्यों अधि रात, मेरे हक़ पे लाठियां बरसाता है 

तू कहता है सब ठीक है मगर

येः धुआं फिर क्यों उठता है !!


येः नासूर का दर्द है मेरा 

तू बातों से क्यों सहलाता है 

आ देख के चूल्हा भूका है 

वादों से क्यों फुसलाता है 

ग़ुलामी वो अच्छी तेरे हुकूमत से 

हर साँस चीख़ यह कहता है 

तू कहता है सब ठीक है फिरभी 

येः धुआं इसलिये उठता है

येः धुआं इसलिये उठता है !!


Copyright (C) Asit Ranjan Panigrahi 2013

पछतावा

लो फिर से अनसुनी सी रहगयी 

कहानी मेरी 

लो फिर से अनसुना सा मेरा 

फ़साना रहगया 

बड़ी उम्मीद से दिन की शुरुवात की थी हमने 

कोरे कागज़ सा दिन का अफसाना रहगया 

हर एक कोने को टटोला था  मैंने 

पर हर साज़ ;

हर तराना ;

अधुरा रहगया 

ग़म आसुओं के पते पर अब मिलते नहीं 

उनका ठिकाना कुछ और होगया 

ज़िन्दगी बेवक्त अब सताने लगी 

उससे रिश्ता जो कुछ अनजाना  सा होगया 

अब तो कागज़ भी कतराते हैं 

अल्फाजों से मेरे 

शक्ल-ए-तसब्बुर कुछ  ऐसा बनगया 

बैठा रहा हूँ अब बस,

इन चार दिवारी के अन्दर 

सोचता रहता हूँ बस यही एक बात 

यह क्या होगया 

यह  होगया