लो फिर से अनसुनी सी रहगयी
कहानी मेरी
लो फिर से अनसुना सा मेरा
फ़साना रहगया
बड़ी उम्मीद से दिन की शुरुवात की थी हमने
कोरे कागज़ सा दिन का अफसाना रहगया
हर एक कोने को टटोला था मैंने
पर हर साज़ ;
हर तराना ;
अधुरा रहगया
ग़म आसुओं के पते पर अब मिलते नहीं
उनका ठिकाना कुछ और होगया
ज़िन्दगी बेवक्त अब सताने लगी
उससे रिश्ता जो कुछ अनजाना सा होगया
अब तो कागज़ भी कतराते हैं
अल्फाजों से मेरे
शक्ल-ए-तसब्बुर कुछ ऐसा बनगया
बैठा रहा हूँ अब बस,
इन चार दिवारी के अन्दर
सोचता रहता हूँ बस यही एक बात
यह क्या होगया
यह होगया
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