Saturday, November 5, 2016

वो सुबह आज़ादी वाली

मुंतजिंर हूं फिर से उसी सुबह का

वो सुबह आज़ादी वाली

जहां कलम ना मेरी रोके कोई

जहां जुबां पर मेरे ना ताले हों

जहां सोच पे मेरी ना जंजीर डालें

जहां परवाज़ पे मेरी ना अड़चन हो.....

जो देखूं ग़लत तो आवाज़ उठाउं

जो ज़ुल्म देखूं तो आवाज़ उठाउं

ना डर से हुकूमत की

अपने ज़मीर का मैं कत्ल करूं

ना सवाल उठाने से कभी

अपने हाथ कभी पीछे करूं.......

बहत घुटन है हवाओं में

अब तो कुछ करना है

आज जो चुप रह गये

बाद में बहत पछताना है

ज़ालिम के हाथों में ज़ोर नहीं

हमारी ख़ामोशी ही उसकी ताकत है

एक बार जो खुलकर चीखे

फिर तो उसकी शामत है.......

जानता हूं बहत मूश्किल है

कोहरा बहत घना है

पर उम्मीद है अवाम से

जो फिर से खड़ी होगी

आवाज़ बुलंद कर

इस अंधियारे से लड़ेगी

फिर छटेगा ये ज़ुल्म का कोहरा

फिर आएगी वो सुबह

वो सुबह आज़ादी वाली......

पर तबतक मूझे चलना है

पर तबतक हमें चलना है

बस रूकना नहीं है हार के

बस तबतक हम को लड़ना है........

Wednesday, April 6, 2016









तू मुनफ़रिद यक्ता है मैं मानता हूं 
उसके फितरत का करिश्मा है मानता हूँ 


इंतहा-ए -इश्क़ का सम्त है तू 
तेरे शखावत का मुंतज़िर हूं मानता हूं 


जो शहर सारा दीवाना हुआ बैठा है 
उस मग़रूर -ए - यार को जानता हूं 


बहत बेबाक हैं तेरे निगाहों के खनजर 
मैं मौत को तैयार, ये मानता हूं  


वो कहते हासिल-ए -महताब है नामुमकिन 
पर हारने से मैं कहां  मानता हूं 


तू पाक है आब -ए -अब्र की तरह 
मैं खाक हूं ज़मीन हूं मानता हूं 


गोया वस्ल है मुश्किल लोग कहते 
तू भी बेरुख मुझसे, ये भी मानता हूं 



तू यकीन में है अपने दिल की मगर 
मैं एजाज़ - ए  - शिद्दत - ए  - मोहब्बत मानता  हूं  





फिर से वही दास्तां - ए - यार आ गया
बेबाकी से ज़ुबां पे तेरा नाम आ गया


हुनर-वर ना  इतने के हम सहलें
याद के साथ जो ये अजाब आ गया


बड़ा वीरान सा लग रहा है ये मकान हमें
लौट कर आए तो लगा किसीका  मज़ार आ गया




आज   तो  एहसास   नहीं   उतरते   कागज़   पर  

तेरा  गम   शायद   अब   हल्का  हो  चला  है  



पहले   तेरी   याद   ही   काफी   थी   गिरिया   के   आमद   के  लिए 

आज  शिकन  भी  नहीं  चेहरे  पे,  तेरा   ज़िक्र  हो  चला  है  




दिन गुज़र जाता है मग़र करार नहीं मिलता 
इस भीड़ में कोई चेहरा तेरे चेहरे से नहीं मिलता 


आईना भी मायूश खड़ा है आज 
मेरे अक्स से जो मेरा चेहरा नहीं मिलता 


कभी जो हुआ करते थे रौनक- ए - महफ़िल हमारे 
आज यादों में भी उनका साया नहीं मिलता 


कहते थे ज़िन्दगी जिन निगाहों को कभी 
आज उस चेहरे का कहीं दीदार नहीं मिलता 


ज़िन्दगी है, सांसें हैं, जी रहे हैं 
बस कभी चैन नहीं मिलता, कभी करार नहीं मिलता 


आशित ये खाव्ब फरेबी हैं इतना जानले 
कभी ये तुझे नहीं मिलते, कभी तू इनको नहीं मिलता 




ग़म - ए - इश्क़ , हाल - ए  - दिल , बज़्म- ए  - यार मैं कैसे कहूं 


कहने को तो बहुत है, पर मालूम नहीं कैसे कहूं 
 वो रात लिये  फिरते हैं पहलू  में 


मैं दिन की तलाश में भटका करता हूं 
जिन्हे भूलने में हमे ज़माने लगे 

वो यादों में हमें आज़माने लगे 
वो तेरा  बेबाकी से कहना 
वो मेरा दिल्लगी से सुनना 


बहत याद आता है हमे 
वो बेमतलब की बातें सुनना 


 फ़साने सुनाएंगी बहत सी हमारी 
कभी फुर्सत में इन दर-ओ-दीवारों  को सुनना 


आ जाओ लौट कर, ख़ामोश हो जाएं  सभी 
बस बहत हो गया ज़माने के ताने सुनना 


समझ नहीं पाते पागल कहते मुझे 
अखडता है इन्हें  मेरा बज़्म में ख़ामोशी सुनना 


रात अकेले  चांद  के साथ गुज़ारता हूं 
अच्छा लगता है तन्हाई में तन्हाई को सुनना 


बड़े दिनों बाद मिले और ख़ामोश हो आशित 
बड़ी बुरी आदत है ये, ना अपनी कहना, ना मेरी सुनना 


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तू आदमी है पहले इंसान बन 
फिर ख़ुदा और मज़हब  बात करना 


देखि हैं कई सियासतें , देखि हैं कई हुकूमतें 
तू पहले मेरी सुन, फिर अपनी  बात करना 


किसने दिया है  हक़ तुझे, क्यों बना है वाइज़ यहां 
पहले अपना घर बसा, फिर ज़माने की बात करना 


भैया सभी उल्झे हैं ज़िन्दगी के झमेलों में 
आज रोटी की करले, कल मज़हब की बात करना 


तू ना होगा तो क्या  मिलेगा नहीं नहीं खुदा मुझे 
तू अपनी मंज़िल ढूंढ फिर मेरे रस्ते की बात करना


खुदा नहीं मिलता कभी काबा में कभी काशी में 
खुदा की चाह है तो पहले इन्सानो की बात करना