मुंतजिंर हूं फिर से उसी सुबह का
वो सुबह आज़ादी वाली
जहां कलम ना मेरी रोके कोई
जहां जुबां पर मेरे ना ताले हों
जहां सोच पे मेरी ना जंजीर डालें
जहां परवाज़ पे मेरी ना अड़चन हो.....
जो देखूं ग़लत तो आवाज़ उठाउं
जो ज़ुल्म देखूं तो आवाज़ उठाउं
ना डर से हुकूमत की
अपने ज़मीर का मैं कत्ल करूं
ना सवाल उठाने से कभी
अपने हाथ कभी पीछे करूं.......
बहत घुटन है हवाओं में
अब तो कुछ करना है
आज जो चुप रह गये
बाद में बहत पछताना है
ज़ालिम के हाथों में ज़ोर नहीं
हमारी ख़ामोशी ही उसकी ताकत है
एक बार जो खुलकर चीखे
फिर तो उसकी शामत है.......
जानता हूं बहत मूश्किल है
कोहरा बहत घना है
पर उम्मीद है अवाम से
जो फिर से खड़ी होगी
आवाज़ बुलंद कर
इस अंधियारे से लड़ेगी
फिर छटेगा ये ज़ुल्म का कोहरा
फिर आएगी वो सुबह
वो सुबह आज़ादी वाली......
पर तबतक मूझे चलना है
पर तबतक हमें चलना है
बस रूकना नहीं है हार के
बस तबतक हम को लड़ना है........